मानवाधिकारों की सुरक्षा के बिना दुनिया को एक गांव में बदलने की कामना बकवास है - मनोज सिंह
रिपोर्ट- प्रेम शंकर पाण्डेय
विचार बिंदु
10 दिसंबर-मानवाधिकार दिवस विशेष
आदिम युग में मनुष्य जब धरती पर अवतरित हुआ तब उसके अधिकार असीमित थे परन्तु अपरिभाषित थे । अपने अपरिभाषित प्राकृतिक अधिकारो के साथ मनुष्य सहज भाव से प्रकृति गोंद में पूरी तरह मग्न था। जनसंख्या के अनुरूप प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता प्रचुर थी । सहज ,सरल एवं सीमित आवाश्यकताओ वाले आदिम युग के मनुष्य को सभ्यता , संस्कृति ,कला , विज्ञान , साहित्य इत्यादि का तनिक भी ज्ञान,भान एवं एहसास नहीं था। धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ी और प्राकृतिक संसाधनों पर हकदारी के लिए हिंसक प्रतिस्पर्धा अर्थात छिना-छपटी बढ़ने लगी। मनुष्य की प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जैसे -जैसे जिज्ञासा और अभिरूचि बढ़ती गयी वैसे -वैसे प्राकृतिक संसाधनों का भोग , उपभोग , उपयोग ,महत्व एवं मूल्य बढ़ता गया। सुव्यवस्थित सामाजिक, राजनीतिक, संविधानिक व्यवस्था के अभाव में चहुंओर जिसकी लाठी उसकी भैंस ( might is right) का कानून प्रचलित था। प्राकृतिक संसाधनों का जैसे-जैसे ज्ञान महत्व एवं मूल्य बढ़ता गया स्वामित्व के लिए लड़ाई झगडे भी बढ़ने लगे। धीरे-धीरे ताकतवर लोग प्राकृतिक संसाधनों के मालिक बन बैठे तथा प्राकृतिक संसाधनों के अभाव में अधिकांश लोगों का जीवन जीना कठिन होता गया एवं चुनौती पूर्ण विषय बन गया। कालांतर में समाज स्पष्ट रूप अधिकार सम्पन्न और अधिकार विहिन दो वर्गों में विभाजित हो गया। आदिम युग के मनुष्य का जन जीवन महज़ प्राकृतिक नियमों से निर्देशित, नियमित एवं संचालित होता था। प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व रखने वाले अधिकार सम्पन्न लोग संगठित होकर शासक के रूप में स्थापित होने लगे । मनुष्य पर मनुष्य के शासन करने का इतिहास अभी भी ख़ोज और अध्ययन का विषय है। परन्तु यह सिलसिला कबीलों के सरदार से आरंभ होकर राजा , सम्राट , तानाशाह के रूप आधुनिक लोकतंत्र के आगमन तक चलता रहा। इतिहास में गिने चुने शासकों को छोड़कर अधिकतर शासक निरन्तर शासन की पकड़ मजबूत करने के लिए अनेकानेक तरीके ईजाद करते रहे। शासन करने के इन तौर तरीकों में शासकों द्वारा सुसंगठित शोषण एवं उत्पीड़न के औजार भी विकसित किए गए। सुसंगठित एवं सुनियोजित शोषण एवं उत्पीड़न से आजिज आकर आम जनता ने सम्मान जनक जीवन जीने के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की मांग के रूप में अधिकारों की मांग की अपने-अपने शासकों के समक्ष प्रस्तुत की । निश्चित रूप से प्राकृतिक , सामाजिक, राजनीतिक संविधानिक अधिकारो की आवाज शोषित, पीड़ित, वंचित एवं अभाव ग्रस्त जीवन रहे अधिकार विहिन लोगों ने ही उठाई। मनुष्य जैसे-जैसे कबिलाई दौर से निकल कर सभ्य समाज की तरफ कदम बढ़ाता गया वैसे आम आदमी के लिए अधिकारों की संकल्पना चिंतन मनन का विषय बनने लगी।

वैसे तो एक सभ्य , सुसंस्कृत , सामाजिक रूप से सुव्यवस्थित, एवं राजनीतिक रूप से जागरूक तथा सुसंगठित समाज में मनुष्य के आधारभूत अधिकारों की संकल्पना अत्यंत प्राचीन काल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रही है। लगभग समस्त धार्मिक ग्रन्थों, महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध, मुहम्मद साहब और ईसामसीह जैसे धर्म प्रवर्तकों , सुप्रसिद्ध संतों और मानवतावादी राजनीतिक चिंतको, विचारकों के उपदेशों ,विचारों एवं विकसित सिद्धांतों में किसी न किसी रूप में अवश्य ही विमर्श में रहीं हैं। परन्तु आधुनिक अर्थो में जन्मजात और अहरणीय मानवाधिकारो के स्वरूप और सिद्धांत पर सार्वभौमिक सहमति द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत निर्मित संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशो के मध्य 10दिसंबर 1948 मे बनी। 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मनुष्य के कुछ जन्मजात और अहरणीय अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया,अंगीकार किया उद्घोषणा किया तथा सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी किया। सदस्य देशों ने सामूहिक सहमति के आधार पर तय किया गया कि-स्थानीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनों द्वारा विश्व के प्रत्येक मनुष्य के इन जन्मजात और अहरणीय अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए। इसी उपलक्ष्य में प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को पुरी दुनिया द्वारा मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है। बीसवीं शताब्दी हुए दो विश्व युद्धों ने मानव के साथ-साथ मानवाधिकारों की अवधारणा को तहस-नहस कर दिया। इसलिए द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत मानवाधिकारों पर विशेष ध्यान दिया गया। मानवाधिकारो की इस उद्घोषणा की अनुपालना में दुनिया के लगभग सभी आधुनिक सभ्य और लोकतांत्रिक देशों ने अपने-अपने संविधान में जाति, धर्म, भाषा, लिंग, क्षेत्र,रंग और अन्य संकीर्णताओं से उपर उठकर समुचित प्रावधान किया है।आज मानवाधिकार दिवस के दिन अमन और शांति के लिए प्रयास करने वालों और मानवता को बचाने के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया जाता हैं।
राजनीति की अनेकानेक संकल्पनाओं की तरह अधिकार की संकल्पना पर चिंतन मनन भी यूनान में आरंभ हुआ। प्राचीन यूरोप के ज्ञान-विज्ञान के पालना के नाम से विख्यात यूनान के सोफिस्ट दार्शनिक प्रोटेगोरस ने कहा था कि-" मनुष्य समस्त वस्तुओं का मापदंड है ( man is the measurement of all things) "। मनुष्य अद्वितीय सृजनात्मक, रचनात्मक शक्तियों से परिपूर्ण है परन्तु अधिकारों के अभाव अपनी सृजनात्मक एवं रचनात्मक क्षमता का प्रयोग नहीं कर सकता है।प्राचीन यूनान में ही सुकरात ने यूनानी समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और प्रचलित असंगत रूढियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए जहर का प्याला पी लिया। सुकरात के इस साहसिक त्याग से अभिव्यक्ति के अधिकार का विचार अंकुरित हुआ। प्राचीन भारत में सम्राट अशोक की धम्मपद की घोषणाओं में भी मनुष्य के जन्मजात और अहरणीय मानवाधिकारों का उल्लेख मिलता है। परन्तु सुसंगठित, सैद्धान्तिक और आधुनिक स्वरूप में मानवाधिकारो के उदय की परिघटना यूरोप के पुनर्जागरण के उपरांत की है। द टवैल्व आर्टिकल्स ऑफ ब्लैक फारेस्ट को मानवाधिकारो की दिशा में पहला दस्तावेज माना जाता है। यह दस्तावेज वस्तुतः जर्मनी में 1525 किसानों के संघर्ष के दौरान किसानों की मांग के एक हिस्से के रूप में जाना जाता है है। इसके उपरांत इंग्लैंड में ब्रिटिश बिल ऑफ राइट्स के माध्यम से नागरिक अधिकारों की संकल्पना को मजबूती मिलीं। मानवाधिकारो की संकल्पना को सर्वाधिक लोकप्रिय और व्यापक बनाने मे 1776 मे अमरीका के स्वाधीनता संग्राम और 1789 में सम्पन्न होने वाली फ्रांसीसी क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही। फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व के नारे के साथ विशेषाधिकारो के विरुद्ध प्रखर संघर्ष किया। अनवरत संघर्षों और अनगिनत कुर्बानियों के उपरांत वैश्विक स्तर पर स्थापित मानवाधिकार तब तक सार्थक और सफल नहीं हो सकते हैं जबतक दुनिया में साम्राज्यवादी विस्तारवादी दृष्टिकोण, आतंकवाद, सैनिक तानाशाहियाॅ, सीमाओं और सरहदो पर तनाव तथा नस्ल प्रजाति और धर्म के नाम पर रक्तरंजित संघर्ष कायम हैं। दुनिया के ताकतवर देश कमजोर देशों को भयाक्रांत करने तथा दुनिया में अपनी दादागिरी कायम करने के लिए एक से एक अत्याधुनिक किस्म के घातक हथियारों का निर्माण कर रहे हैं।
आदिम युग के अनपढ़,असभ्य और सभ्यता तथा संस्कृति से पूर्णत अनभिज्ञ मानव ने महज पत्थर के औजार बनाऐ। ये औजार आदिम मनुष्य ने जंगली जानवरों का शिकार करने और आत्म रक्षा हेतु बनाये। आज आधुनिक युग का शिक्षित सभ्य सुसंस्कृत तथा ज्ञान विज्ञान तकनीकी से पूर्णतः मर्मज्ञ मानव अत्यधिक मारक क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्र मिसाइलें और विनाशक हथियारों और पलक झपकते शहर को तहस-नहस कर देने वाले परमाणु बम और हाइड्रोजन बन बना रहा है। निश्चित रूप से इन समस्त विनाशक हथियारों का निर्माण किसी जंगली जानवर को मारने के लिए नहीं बल्कि स्वयं को मारने के लिए कर रहा है। विनाशक हथियारों की उत्तरोत्तर बढती प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा के दौर में मानवाधिकारो पर विचार करना बेमानी लगता है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार आयोग कार्यरत है और संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्देश पर लगभग सभी देशों में राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर मानवाधिकार आयोग कार्यरत है परन्तु मानवाधिकार के उल्लंघन की उत्तरोत्तर बढती घटनाएं हमें इमानदारी से मानवाधिकारो पर चिंतन करने के लिए विवश करती हैं।
वस्तुतः मानवाधिकार एक गतिशील अवधारणा हैं। बदलते दौर के हिसाब से इसके आकार तानाशाहियों और राजशाहियों के दौर में स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार ही मानवाधिकार की दिशा में एक चुनौती थी। कल कारखानों में काम के घंटे सुनिश्चित कराना, प्रबंधको द्वारा मेहनतकशो का शोषण तथा कार्य स्थल पर स्वच्छ वातावरण मानवाधिकारो की दिशा में एक चुनौती है। विकास की अंधी दौड़ चंद लोगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक विदोहन और इसके कारण फैलते प्रदूषण के दौर में मनुष्य को शुद्ध हवा पानी और प्रदूषण रहित पर्यावरण उपलब्ध होना भी एक चुनौती है। दुनिया में इस समय वैश्विकरण की बयार बह रही है परन्तु वैश्विकरण का सपना और संकल्प तभी मुक्कमल हो सकता हैं जब दुनिया के हर आदमी के गरिमामय जीवन जीने के अधिकारों को सुरक्षा एवं सुनिश्चितता प्रदान की जायेगी।
मनोज कुमार सिंह ✍️
लेखक /साहित्यकार/ स्तम्भकार
अध्यक्ष -जन संस्कृति मंच मऊ
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